Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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तीनों आदमी घर की ओर चले। रास्ते-भर प्रेमशंकर दोनों शिकारों को समझाते रहे। घर पहुँचकर वे फिर निद्रा देवी को आराधना करने लगे। मच्छरों की जगह जब उनके सामने एक बाधा आ खड़ी हुई। यह श्रद्धा का अन्तिम वाक्य था, ‘तुम्हारे चित्त से अभी अहंकार नहीं मिटा।’ प्रेमशंकर बड़ी निर्दयता से अपने कृत्यों का समीक्षण कर रहे थे। अपने अन्तःकरण के एक-एक परदे को खोलकर देख रहे थे और प्रतिक्षण उन्हें विश्वास होता जाता था कि मैं वास्तव में अहंकार का पुतला हूँ। वह अपने किसी काम को, किसी संकल्प को अहंकार-रहित न पाते थे। उनकी दया और दीन-भक्ति में भी अहंकार छिपा हुआ जान पड़ता था। उन्हें शंका हो रही थी, क्या सिद्धान्त-प्रेम अहंकार का दूसरा स्वरूप है। इसके विपरीत श्रद्धा की धर्मपरायणता में अहंकार की गन्ध तक न थी।

इतने में ज्वालासिंह ने आकर कहा, क्या सोते ही रहिएगा? सबेरा हो गया था।

प्रेमशंकर ने चौंककर द्वार की ओर देखा तो वास्तव में दिन निकल आया था। बोले मुझे तो मच्छरों के मारे नींद नहीं आयी! आँखें तक न झपकीं।

ज्वाला– और यहाँ एक ही करवट में भोर हो गया।

प्रेमशंकर उठकर हाथ-मुँह धोने लगे। आज उन्हें बहुत काम करना था। ज्वालासिंह भी स्नानादि से निवृत्त हुए। अभी दोनों आदमी कपड़े पहन ही रहे थे कि तेजशंकर जलपान के लिए ताजा हलुआ, सेब का मुरब्बा, तले हुए पिस्ते और बादाम तथा गर्म दूध लाया ज्वालासिंह ने कहा, आपके चचा साहब बड़े मेहमाँनवाज आदमी हैं। ऐसा जान पड़ता है कि आतिथ्य-सत्कार में उन्हें हार्दिक आनन्द आता है और एक हम हैं कि मेहमान की सूरत देखते ही मानो दब जाते हैं। उनका जो कुछ सत्कार करते हैं वह प्रथा-पालन के लिए, मन से यही चाहते हैं कि किसी तरह यह ब्याधि सिर से टले।

प्रेम– वे पवित्र आत्माएँ अब संसार से उठती जाती हैं। अब तो जिधर देखिए उधर स्वार्थ-सेवा का आधिपत्य है। चचा साहब जैसा भोजन करते हैं, वैसा अच्छे-अच्छे रईसों को भी मयस्सर नहीं होता। वह स्वयं पाक-शास्त्र में निपुण हैं। लेकिन खाने का इतना शौक नहीं है जितना खिलाने का। मेरा तो जी चाहता है कि अवकाश मिले तो यह विद्या उनसे सीखूँ।

दोनों मित्रों ने जलपान किया और लाला प्रभाशंकर से विदा होकर घर से निकले। ज्वालासिंह ने कहा, कोई वकील ठीक करना चाहिए।

प्रेम– हाँ, यही सबसे जरूरी काम है। देखें, कोई महाशय मिलते हैं या नहीं। चचा साहब को तो लोगों ने साफ जवाब दे दिया।

ज्वाला– डॉक्टर इर्फान अली से मेरा खूब परिचय है। आइए, पहले वहीं चलें।

प्रेम– वह तो शायद ही राजी हों। ज्ञानशंकर से उनकी बातचीत पहले ही हो चुकी है।

ज्वाला– अभी वकालतनामा तो दाखिल नहीं हुआ। ज्ञानशंकर ऐसे नादान नहीं हैं कि ख्वाहमख्वाह हजारों रुपयों का खर्च उठायें। उनकी जो इच्छा थी वह पुलिस के हाथों पूरी हुई जाती है। सारा लखनपुर चक्कर में फँस गया। अब उन्हें वकील रख कर क्या करना है?

डॉक्टर महोदय अपने बाग में टहल रहे थे। दोनों सज्जनों को देखते ही बढ़कर हाथ मिलाया और बँगले में ले गये।

डॉक्टर– (ज्वालासिंह से) आपसे तो एक मुद्दत के बाद मुलाकात हुई है। आजकल तो आप हरदोई में हैं न? आपके बयान ने तो पुलिसवालों की बोलती ही बन्द कर दी। मगर याद रखिए, इसका परिणाम आप को उठाना पड़ेगा।

ज्वाला– उसकी नौबत ही न आयेगी। इन दोरंगी चालों से नफरत हो गयी। इस्तीफा देने का फैसला कर चुका हूँ।

डॉक्टर– हालत ही ऐसी है कि खुद्दार आदमी उसे गवारा नहीं कर सकता। बस यहाँ उन लोगों की चाँदी है जिनके कान्शस मुरदा हो गये हैं। मेरे पेशे को लीजिए, कहा जाता है कि यह आजाद पेशा है। लेकिन लाला प्रभाशंकर को सारे शहर में (प्रेमशंकर की तरफ देख कर) आपकी पैरवी करने के लिए कोई वकील न मिला। मालूम नहीं, वह मेरे यहाँ तशरीफ क्यों नहीं लाये।

ज्वाला– उस गलती की तलाफी (प्रायश्चित) करने के लिए हम लोग हाजिर हुए हैं। गरीब किसानों पर आपको रहम करना पड़ेगा।

डॉक्टर– मैं इस ख़िदमत के लिए हाजिर हूँ। पुलिस से मेरी दुश्मनी है। ऐसे मुकदमों की मुझे तलाश रहती है। बस, यही मेरा आखिरी मुकदमा होगा। मुझे भी वकालत से नफरत हो गयी है। मैंने युनिवर्सिटी में दरख्वास्त दी है। मंजूर हो गयी तो बोरिया-बँधना समेटकर उधर की राह लूँगा।

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